
कर्नाटक सरकार द्वारा कक्षा 1 से 5 तक हिंदी अनिवार्य करने के फैसले ने एक बार फिर देश में भाषाई विवाद को हवा दे दी है। इस निर्णय के बाद जहां एक वर्ग इस कदम को “राष्ट्रीय एकता” की दिशा में सराहनीय बता रहा है, वहीं कई क्षेत्रीय दल और भाषा संगठनों ने इसे “थोपने की राजनीति” करार दिया है।
यह भी देखें: हज यात्रियों को झटका! सऊदी ने रद्द किया भारत का कोटा – जानिए अब आगे क्या होगा
राज्य सरकार का कहना है कि इस नीति का उद्देश्य छात्रों को बहुभाषी वातावरण में तैयार करना और उन्हें भविष्य में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाना है। वहीं, आलोचकों का तर्क है कि यह निर्णय राज्य की मातृभाषा कन्नड़ के महत्व को कम करता है और संविधान की तीन-भाषा नीति के खिलाफ है।
कक्षा 1 से 5 तक हिंदी अनिवार्य करने का फैसला शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव है, लेकिन इसे लेकर जो राजनीतिक और सामाजिक विवाद उत्पन्न हुए हैं, वे यह दर्शाते हैं कि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान और संस्कृति का सवाल भी है।
शिक्षा विभाग की नई नीति का विवरण
कर्नाटक सरकार ने इस नई शैक्षणिक नीति के तहत कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाए जाने का आदेश दिया है। यह फैसला राज्य में संचालित सभी सरकारी, अर्ध-सरकारी और निजी स्कूलों पर लागू होगा।
यह भी देखें: 8वें वेतन आयोग से मिली निराशा! 2026 में नहीं बढ़ेगी सैलरी? रिपोर्ट में सामने आई चौंकाने वाली बात
शिक्षा विभाग के अनुसार, इस पहल का मकसद बच्चों को शुरू से ही हिंदी से परिचित कराना है, जिससे वे राष्ट्रव्यापी संचार में सहज हो सकें। अधिकारियों का दावा है कि यह निर्णय नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के अनुरूप है, जिसमें छात्रों को तीन भाषाओं के ज्ञान को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया गया है।
विपक्ष और क्षेत्रीय संगठनों की आपत्ति
हालांकि, इस फैसले के खिलाफ राज्य में कई राजनीतिक दल और क्षेत्रीय संगठन खुलकर सामने आ गए हैं। उनका कहना है कि यह निर्णय केंद्र सरकार की हिंदी थोपने की रणनीति का हिस्सा है।
यह भी देखें: सोना अब ₹1 लाख के करीब! एक दिन में हज़ारों रुपये उछाल – क्या ये है खरीदने का सही वक्त?
जनता दल (सेक्युलर) और कांग्रेस जैसे दलों ने सरकार से सवाल पूछा है कि आखिर क्यों हिंदी को अनिवार्य बनाया गया, जबकि कन्नड़ ही राज्य की राजभाषा है। इसके अलावा कई कन्नड़ समर्थक संगठनों ने भी सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं।
अभिभावकों और शिक्षकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया
अभिभावकों और शिक्षकों के बीच इस निर्णय को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं। एक वर्ग इसे बच्चों के भविष्य के लिए उपयोगी मान रहा है, क्योंकि हिंदी जानने से उन्हें सरकारी नौकरियों और प्रतियोगी परीक्षाओं में मदद मिलेगी।
यह भी देखें: लू का तांडव शुरू! हरियाणा, पंजाब और गुजरात में हीटवेव अलर्ट – मौसम विभाग की चेतावनी पढ़ लें अब
दूसरी ओर, कुछ शिक्षकों का मानना है कि छोटे बच्चों पर कई भाषाएं थोपना उनकी भाषाई समझ और बौद्धिक विकास को प्रभावित कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के पुराने निर्देश और संवैधानिक स्थिति
यह बहस कोई नई नहीं है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 तक भाषाओं को लेकर स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं। केंद्र सरकार द्वारा बार-बार हिंदी को “लिंक लैंग्वेज” या संपर्क भाषा बनाने की कोशिशों का दक्षिण भारत के राज्यों ने हमेशा विरोध किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी पहले स्पष्ट किया है कि भाषाई विविधता का सम्मान करते हुए किसी भी भाषा को थोपना संविधान की भावना के खिलाफ है।
यह भी देखें: UPMSP Result 2025: यूपी बोर्ड रिजल्ट पर नया अपडेट आया सामने – नतीजे होंगे इस बार और भी शानदार!
केंद्र की चुप्पी और राजनीतिक संदेश
इस पूरे विवाद में केंद्र सरकार ने अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, लेकिन विपक्षी दल इसे राजनीतिक एजेंडा मानते हैं। उनका आरोप है कि यह कदम आगामी लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखकर उठाया गया है, ताकि हिंदीभाषी राज्यों में इसकी राजनीतिक लाभ लिया जा सके।
राष्ट्रीय स्तर पर भाषा नीति की बहस
इस घटनाक्रम ने एक बार फिर राष्ट्रीय भाषा नीति पर बहस को तेज कर दिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में ऐसी नीतियों से पहले जन संवाद और सहमति ज़रूरी है।
यह भी देखें: Free Gas Cylinder: अब एक नहीं, परिवार की दो महिलाओं को मिलेगा फ्री सिलेंडर! जानिए कैसे उठाएं योजना का फायदा
यदि बच्चों को तीन भाषाएं पढ़ानी ही हैं, तो वह स्थानीय भाषा (कन्नड़), हिंदी और अंग्रेज़ी के विकल्प के साथ होनी चाहिए, न कि एक को अनिवार्य बनाकर।
2 thoughts on “इस राज्य में कक्षा 1 से 5 तक हिंदी अनिवार्य – फिर छिड़ा भाषा विवाद”